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आ प॑वस्व॒ गवि॑ष्टये म॒हे सो॑म नृ॒चक्ष॑से । एन्द्र॑स्य ज॒ठरे॑ विश ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā pavasva gaviṣṭaye mahe soma nṛcakṣase | endrasya jaṭhare viśa ||

पद पाठ

आ । पा॒व॒स्व॒ । गोऽइ॑ष्टये । म॒हे । सो॒म॒ । नृ॒ऽचक्ष॑से । आ । इन्द्र॑स्य । ज॒ठरे॑ । वि॒श॒ ॥ ९.६६.१५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:66» मन्त्र:15 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे परमात्मन् ! आप (आपवस्व) हमको सब ओर से पवित्र करें (महे) बड़े (नृचक्षसे) ज्ञानकी वृद्धि के लिए और (गविष्टये) इन्द्रियों की शुद्धि के लिए और (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (जठरे) जठराग्नि में (आविश) प्रवेश करें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करता है कि मैं कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगियों के हृदय में अवश्यमेव निवास करता हूँ। यद्यपि परमात्मा सर्वत्र है, तथापि परमात्मा की अभिव्यक्ति जैसी ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी के हृदय में होती है, वैसी अन्यत्र नहीं होती। इसी अभिप्राय से यहाँ कर्मयोगी के हृदय में विराजमान होना लिखा गया है और “वैश्वानरस्तद्धर्मव्यपदेशात्” इस सूत्र में परमात्मा को “वैश्वानर” अग्निरूप से कथन किया गया है ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) जगदीश्वर ! त्वं (आपवस्व) मां परितः पवित्रय (महे) महत्यै (नृचक्षसे) ज्ञानवृद्ध्यै तथा (गविष्टये) इन्द्रियशुद्ध्यै (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (जठरे) जठराग्नौ (आविश) प्रविश ॥१५॥